Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-12 With Narration Lyric in Hindi

Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-12
Bhagavad Gita Quotes In HindiShrimad Bhagawad Geeta Details
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“मन की परेशानी या समय की हैरानी का एक ही हल है कि आप अपने सवालों के जवाबों के पीछे ऐसे पड़ जाए, जैसे आप एक हठयोगी हो।”

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श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है।
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श्रीमदभगवदगीता द्वादश अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो भक्त
इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर
आप(सगुण भगवान्) की उपासना करते हैं
और जो अविनाशी निराकारकी ही
उपासना करते हैं?
उनमेंसे उत्तम योगवेत्ता कौन हैं

श्री भगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरेमें मनको लगाकर
नित्यनिरन्तर मेरेमें लगे हुए
जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर
मेरी उपासना करते हैं?
वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो अपनी
इन्द्रियोंको वशमें करके
अचिन्त्य? सब जगह परिपूर्ण? अनिर्देश्य? कूटस्थ? अचल? ध्रुव? अक्षर
और अव्यक्तकी उपासना करते हैं?
वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब
जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो अपनी
इन्द्रियोंको वशमें करके
अचिन्त्य? सब जगह परिपूर्ण? अनिर्देश्य? कूटस्थ? अचल? ध्रुव? अक्षर
और अव्यक्तकी उपासना करते हैं?
वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह
समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अव्यक्तमें आसक्त
चित्तवाले उन साधकोंको
(अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है
क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्तविषयक
गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु
जो कर्मोंको मेरे अर्पण करके और
मेरे परायण होकर
अनन्ययोगसे मेरा ही ध्यान करते हुए
मेरी उपासना करते हैं।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका
मैं मृत्युरूप संसारसमुद्रसे शीघ्र ही
उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
तू मेरेमें
मनको लगा
और मेरेमें ही बुद्धिको लगा
इसके बाद तू मेरेमें ही निवास करेगा
— इसमें संशय नहीं है।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अगर तू मनको
मेरेमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें समर्थ नहीं है?
तो हे धनञ्जय अभ्यासयोगके द्वारा
तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अगर तू
अभ्यास(योग)
में भी असमर्थ है?
तो मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो जा।
मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ
भी तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा।

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अगर मेरे योग(समता)
के आश्रित हुआ
तू इस(पूर्वश्लोकमें कहे गये साधन) को
भी करनेमें असमर्थ है?
तो मनइन्द्रियोंको वशमें करके
सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग कर।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है?
शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है
और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है।
कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित? सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु? ममतारहित? अहंकाररहित? सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम? क्षमाशील? निरन्तर सन्तुष्ट? योगी? शरीरको वशमें किये हुए? दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है? वह मेरेको प्रिय है।

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित? सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु? ममतारहित? अहंकाररहित? सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम? क्षमाशील? निरन्तर सन्तुष्ट? योगी? शरीरको वशमें किये हुए? दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है? वह मेरेको प्रिय है।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिससे किसी प्राणीको उद्वेग नहीं होता
और जिसको खुद भी किसी प्राणीसे उद्वेग नहीं होता
तथा जो हर्ष? अमर्ष (ईर्ष्या)?
भय और उद्वेगसे रहित है?
वह मुझे प्रिय है।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो आकाङ्क्षासे रहित?
बाहरभीतरसे पवित्र? दक्ष? उदासीन? व्यथासे रहित
और सभी आरम्भोंका अ
र्थात् नयेनये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है?
वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्ितमान्यः स मे प्रियः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो न कभी हर्षित होता है?
न द्वेष करता है?
न शोक करता है?
न कामना करता है
और जो शुभअशुभ कर्मोंमें रागद्वेषका त्यागी है?
वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो शत्रु और मित्रमें तथा मानअपमानमें सम है और शीतउष्ण (अनुकूलताप्रतिकूलता) तथा सुखदुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है? और जो निन्दास्तुतिको समान समझनेवाला? मननशील? जिसकिसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट? रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममताआसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है? वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो शत्रु और मित्रमें तथा मानअपमानमें सम है और शीतउष्ण (अनुकूलताप्रतिकूलता) तथा सुखदुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है? और जो निन्दास्तुतिको समान समझनेवाला? मननशील? जिसकिसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट? रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममताआसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है? वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले- आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे प्रति कहते हैं॥

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